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मह्या ते॑ स॒ख्यं व॑श्मि श॒क्तीरा वृ॑त्र॒घ्ने नि॒युतो॑ यन्ति पू॒र्वीः। महि॑ स्तो॒त्रमव॒ आग॑न्म सू॒रेर॒स्माकं॒ सु म॑घवन्बोधि गो॒पाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahy ā te sakhyaṁ vaśmi śaktīr ā vṛtraghne niyuto yanti pūrvīḥ | mahi stotram ava āganma sūrer asmākaṁ su maghavan bodhi gopāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

महि॑। आ। ते॒। स॒ख्यम्। व॒श्मि॒। श॒क्तीः। आ। वृ॒त्र॒ऽघ्ने। नि॒ऽयुतः॑। य॒न्ति॒। पू॒र्वीः। महि॑। स्तो॒त्रम्। अवः॑। आ। अ॒ग॒न्म॒। सू॒रेः। अ॒स्माक॑म्। सु। म॒घ॒व॒न्। बो॒धि॒। गो॒पाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) अत्यन्त श्रेष्ठ धनयुक्त पुरुष ! मैं (ते) आपके (महि) अति आदर करने योग्य (सख्यम्) मित्रभाव की (आ, वश्मि) अच्छी कामना करता हूँ विद्वान् जन जिस (वृत्रघ्ने) मेघ के नाशकर्त्ता सूर्य्य के तुल्य वर्त्तमान आपके लिये (पूर्वीः) अनादि काल से सिद्ध (नियुतः) निश्चित (शक्तीः) सामर्थ्यो को (आ) (यन्ति) प्राप्त होते हैं उस (अस्माकम्) हम लोगों के मध्य में वर्त्तमान (सूरेः) परमोत्तम विद्वान् आपके समीप से (महि) बड़े (स्तोत्रम्) स्तुति करने के योग्य (अवः) रक्षा आदि को हम लोग (आ, अगन्म) प्राप्त होवें आप हम लोगों की (गोपाः) रक्षा करते हुए (सु) (बोधि) जानिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोगों को चाहिये कि विद्वान् जनों के साथ मित्रता कर सामर्थ्य पूर्ण कर और न्याय से संपूर्ण जनों की रक्षा करके सूर्य्य के प्रकाश के सदृश संसार में विद्या के बोध का प्रकाश करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मघवन्नहं ते महि सख्यमावश्मि विद्वांसो यस्मै वृत्रघ्न इव वर्त्तमानाय तुभ्यं पूर्वीर्नियुतः शक्तीरायन्ति तस्यास्माकं मध्ये वर्त्तमानस्य सूरेस्तव सकाशान्महि स्तोत्रमवो वयमागन्म त्वमस्माकं गोपाः सन्सुबोधि ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महि) महत्पूजनीयम् (आ) (ते) तव (सख्यम्) मित्रस्य भावम् (वश्मि) कामये (शक्तीः) सामर्थ्यानि (आ) (वृत्रघ्ने) यः सूर्य्यो मेघं वृत्रं हन्ति तद्वद्वर्त्तमानाय (नियुतः) निश्चिताः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातन्यः (महि) महत् (स्तोत्रम्) स्तोतुमर्हम् (अवः) रक्षणादिकम् (आ) (अगन्म) प्राप्नुयाम (सूरेः) परमविदुषः (अस्माकम्) मध्ये वर्त्तमानस्य (सु) शोभने (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त (बोधि) बुध्यस्व (गोपाः) रक्षकः ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्वद्भिः सह मैत्रीं विधाय सामर्थ्यं पूर्णं कृत्वा न्यायेन सर्वान् संरक्ष्य सूर्य्यस्य प्रकाश इव जगति विद्याबोधः प्रकाशनीयः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांबरोबर मैत्री करून पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त करून न्यायाने संपूर्ण लोकांचे रक्षण करून सूर्य प्रकाशाप्रमाणे जगाला विद्येचा बोध करून द्यावा. ॥ १४ ॥